फेसबुकिया प्यार
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खुद करनी से अब दूर हुई
बद जीने को मजबूर हुई।
फेसबुकी पे दो-चार किया
मात-पिता को बीमार किया।
परिणाम भयानक न जानी थी
सूहागिन खुद को मानी थी।
हाँ!था सूरज जो ढलने को
मेरा मन ठानि निकलने को।
व्याकुल मन अजब व्यवहार किया
चुपके-चुपके से श्रृंगार किया।
निशा प्रचण्ड स्तब्ध रूप हुई
निकल के चौखट से दूर हुई।
जाते, भूखण्ड निहारी थी
उलझन!किसको स्वीकारी थी।
तब पग हिल-हिलके चलता था
मध रात्रि तम भी मचलता था।
चल-चलके थक चूर हुई
प्यार जताने,मजबूर हुई।
रहता यहीं हाँ छबीला है
यही घर मेरा कबीला है।
आग लागी खबर फैली थी
भीड में अकेली मैली थी।
पूछे!किसको स्वीकार हुई
इसमें किससे रे प्यार हुई।
था फेक इन्टरोड्यूस किया
फेसबुकी प्यार मनहुस किया।
करनी पे खुब पछतायी थी
भीडो में जो मुरझायी थी।
धन्यवाद।
कवि रचनाकार
प्रभाकर सिंह
कदवा, नवगछिया, भागलपुर।