आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों जोर शोर से चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं वहीं शेयरिंग को लेकर एनडीए में भी बता दें कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में फिलहाल शांति का दृश्य है। बिहार में विधानसभा चुनाव जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, यह घोषणा शीर्ष नेतृत्व द्वारा कई बार हो चुकी है। इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी का एक खेमा फुसफुसा कर ही बोल दे रहा है कि चुनाव तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लड़ा जाएगा। ये ऐसे लोग हैं, जिनका उपयोग बीजेपी नेतृत्व जायका बदलने वाले व्यजंन के तौर पर करता है। निर्णय में इनकी कोई भूमिका नहीं रहती है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि एनडीए में सबकुछ ठीक है। इसके घटक दलों के बीच सीटों का कोई मसला नहीं है, लेकिन सच कहिए तो सीटों को लेकर सबसे अधिक विवाद यहीं होने जा रहा है। यह विवाद सलट जाए और चुनाव के समय इन दलों के कार्यकर्ताओं में नकारात्मक प्रवृत्ति न आए, चुनाव में कामयाबी के लिए इसका ख्याल रखना जरूरी है।
बीजेपी व जेडीयू के बीच स्थिर रहा सीट शेयरिंग फॉर्मूला
लंबे समय से बीजेपी एवं जेडीयू के बीच दोस्ती थी। लोकसभा और विधानसभा की सीटों का फॉर्मूला भी लगभग स्थिर ही था। एकाध कम या अधिक, दोनों दल बिना शोर-शराबा के सीटों का बंटवारा कर लेते थे। संख्या पूरी करने के लिए सीटों के साथ उम्मीदवारों की भी अदला-बदली हो जाती थी। बीते लोकसभा चुनाव में भी दोनों दलों ने इस समझदारी का परिचय दिया। सीतामढ़ी सीट जेडीयू के खाते में गई। जेडीयू ने बीजेपी के पुराने चेहरे सुनील कुमार पिंटू को मैदान में उतार दिया। जीत भी हुई।
इस बार बीजेपी व जेडीयू के बीच एलजेपी भी शामिल
सवाल है कि क्या दोनों दलों के बीच ऐसी ही समझदारी 2020 के विधानसभा चुनाव में भी कायम रह पाएगी? संदेह इसलिए कि पहली बार इन दोनों के बीच तीसरा फरीक भी है। यह लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) है। इसमें यह भी जोड़ दें कि बीजेपी-जेडीयू की कतारों का आग्रह है कि अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा जाए। 2015 के विधानसभा चुनाव का आधार दोनों दलों के कार्यकर्ताओं को अधिक सीटों पर लडऩे के लिए प्रेरित कर रहा है।
जेडीयू चाहता अधिकतम सीटों पर लड़े चुनाव
किसी गठबंधन से जुडऩे के बाद बीजेपी पहली बार अधिकतम 168 सीटों पर लड़ी थी। वह 2000 का विधानसभा चुनाव था। तत्कालीन समता पार्टी और जेडीयू के साथ उसका तालमेल था। उस समय के जेडीयू में रामविलास पासवान भी शामिल थे। उसके बाद बीजेपी अधिक सीटों पर लड़ने का मौका 2015 के विधानसभा चुनाव में मिला। उसी चुनाव में जेडीयू का भी कम सीटों पर चुनाव लडऩे का रिकार्ड बना। जेडीयू ने सिर्फ 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के साथ गठबंधन के लिए उसे 2010 में जीती हुई, 15 सीटों की कुर्बानी देनी पड़ी थी। अब जेडीयू के लोगों का आग्रह है कि अधिकतम सीटों पर लड़े। अधिकतम सीट 139 होती है।
चुनाव में एलजेपी को भी चाहिए 25 से 35 सीटें
बीजेपी और जेडीयू के बीच मामला होता तो बात आसानी से संभल सकती थी, लेकिन बीच में एलजेपी भी है। उसे 25 से 35 सीटें चाहिए। यह ठीक है कि एक समय राज्य में सरकार बनाने के लिए बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन ही काफी होता था। अलग होने पर भी जेडीयू ही बीजेपी की तुलना में मजबूत साबित हुआ। इसका उदाहरण भी 2015 के विधानसभा चुनाव से ही मिलता है। जेडीयू की गैरहाजिरी में चार दलों का गठबंधन बीजेपी सरकार बनाने से कोसों दूर रखा, जबकि जेडीयू की सत्ता में आसान वापसी हो गई।
अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती एलजेपी
पांच साल में बहुत कुछ बदला है और इस बदलाव ने एलजेपी को एनडीए के लिए बहुत हद तक अपरिहार्य बना दिया है। अब एलजेपी अगर अलग या विरोधी गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ती है तो घाटा एनडीए को ही होगा, क्योंकि विधानसभा चुनाव में एलजेपी के पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं है। हां, एक हद तक एनडीए के साथ रहना एलजेपी की भी मजबूरी है। अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम वह नहीं उठा सकती। सभी सीटों के लिए मजबूत उम्मीदवार एलजेपी क्या, किसी दल के पास नहीं है। विरोधी गठबंधन के पास भी एलजेपी को देने के लिए उतनी भी सीटें नहीं हैं, जितनी राजग में उसे आसानी से मिल सकती हैं।
मांझी के बारे में अभी कायम नहीं की जा सकती राय
फिलहाल हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को एनडीए के घटक के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। इसके अध्यक्ष जीतनराम मांझी के बारे में कोई भी राय नामांकन का पर्चा दाखिल करने की आखिरी तारीख को ही कायम की जा सकती है।