


मेरी कर्मभूमि पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली-मुंबई बनी हुई है, उससे पहले वर्धा, नागपुर फिर बिहार में भागलपुर, लखीसराय भी रही, लेकिन मैं मेरी जन्मभूमि नवगछिया से ज्यादा दिन दूर नहीं रह पाता। दूर रहता भी हूं तो चूंकि खुद पत्रकार हूं, तो मीडिया के माध्यम से यहां का हाल-समाचार लेता रहता हूं।
इलाके के बारे में अच्छी खबरें सुनता हूं तो बहुत सुकून मिलता है, लेकिन बुरी खबरें मन भारी कर देती हैं।
बचपन से सुनता रहा कि क्राइम कैपिटल होने के चलते नवगछिया को पुलिस जिला बनाया गया था। समय के साथ क्राइम का रेश्यो यहां घटता-बढ़ता रहा। हत्या, लूट, चोरी जैसी घटनाएं हमेशा से होती रही हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मन दुःखता है, दुष्कर्म की खबरों को पढ़ते हुए।
कठोर से कठोरतम निर्णय, कड़ी से कड़ी सजा तय होने के बावजूद आए दिन नवगछिया, भागलपुर, आसपास और लगभग हर जगह छेड़छाड़, दुष्कर्म की घटनाएं कम नहीं हो रहीं। फांसी जैसी सज़ाओं का भी कोई असर नहीं हो रहा।
आप देखेंगे तो रोजाना 16-24 पृष्ठों के समाचारपत्र में 15 से 20 समाचार छेड़-छाड़, शारीरिक शोषण, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और बलात्कार कर हत्या के होते हैं । समाचार चैनलों पर ‘न्यूज़ शतक’ देखा जाए तो 100 में से 35 खबरें ऐसी ही होती हैं। यह केवल प्रकाश में आ रहीं घटनाओं भर का आंकड़ा है। ऐसे न जाने कितने मामले दबा दिए जाते हैं।
वैश्विक(ग्लोबल) घटनाओं पर मोमबत्ती मार्च करने वाला समाज, सार्वजनिक तौर पर विरोध प्रदर्शित कर सज़ा कि मांग करते हुए चिल्लाने वाला समाज, सोशल नेटवर्किंग पर गुस्सा, गुबार ज़ाहिर करने वाला समाज, एसएमएस और मेल द्वारा फीडबैक देने वाला समाज ऐसा कर के अपनी भूमिका सीमित कर लेता है। जबकि अपनी असली भूमिका से या तो समाज अनभिज्ञ है या फिर अंजान होने का नाटक कर रहा है। अपने देश में तमाम बहस, चर्चाओं, गोष्ठियों आदि का बेकार हो जाना तो समझ में आता है लेकिन फांसी जैसे कठोरतम फैसलों के वावजूद ऐसे जघन्य अपराधों की संख्या में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी समाज की विकृत होती जा रही मानसिकता बदलने(सुधारने) की आवश्यकता पर जोड़ दे रही है। चाहे रोजाना स्त्री-शोषण, बलात्कार या हत्या जैसी घटना हो अथवा हरियाणा के रोहतक में लड़की के परिवार द्वारा उस प्रेमी जोड़े की नृशंस हत्या तथा इस घटना पर समाज और यहाँ तक कि लड़के के परिवार की स्वीकार्यता, चुप्पी या अनापत्ति समाज की विकृत मानसिकता की ही देन है।

अब ऐसे में जबकि इनका कोई सर्वोचित हल ढूंढना मुश्किल जान पड़ रहा है, आवश्यकता है कि हम अपनी भैंस होती जा रही अक्ल में सुधार कर अपनी मानसिकता बदलें और खुद को मानव जाति में बनाए रखें।
अच्छा ! तत्काल हम बस एक बार सोचें कि
- एक स्त्री कोई वस्त्रावेष्टित देह नहीं है।
- प्रकृति ने स्त्री की रचना पुरुष की दैहिक, भौतिक और सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र के लिए नहीं की है।
- दुष्कर्मी ने भी तो आखिर एक स्त्री की कोख से जन्म लिया है।
- शारीरिक बल का रौब दिखने वाला पुरुष यह भूल जाता है कि यह एक स्त्री(मां) द्वारा बचपन में की गई मालिश और अब तक की परवरिश का ही नतीजा है।
- दैहिक बल, झूठी धौंस आदि में स्त्री से आगे रहने वाला पुरुष ममता, सहनशीलता, धैर्य, त्याग, प्रेम आदि भावनाओं में एक स्त्री के मुक़ाबले कहीं पीछे है।
- वर्तमान समय में लगभग हर क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने में स्त्री पुरुषों के या तो बराबर है या फिर आगे।
…….और भी कई बिन्दुओं पर विचार करना होगा, जिसके बाद पुरुष-प्रधान मानसिकता की हार सुनिश्चित है।
इस पूरे लेख का उद्देश्य हार-जीत से परे यह है कि समाज अपनी इस ओछी मानसिकता को कूड़े में फेंक स्त्री को उसके अमूल्य अर्थों में स्वीकार करे।
- निलेश कुमार
सीनियर जर्नलिस्ट
NDTV, दिल्ली-मुंबई

