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प्रदीप विद्रोही

कहलगांव (भागलपुर) ।

प्रसिद्धि में किसी से कम नहीं है ‘रसकदम’. मनेर का लड्डू, गया का तिलकुट और सिलाव का खाजा की जो ख्याति है उससे रत्ती भर भी कम नहीं है भागलपुर जिले के कहलगांव का रसकदम की स्वाद संग ख्याति.सम्बन्ध संग सरोकार की मिठास है रसकदम.मेहमानों के लिए मिठाई की सौगात है रसकदम.सो,कहलगांव शहर में पैर पड़ते ही सहसा मेहमानों के ठहर जाते हैं कदम. बोल उठते हैं चख लेते हैं भाई कहलगांव का…’ रसकदम ‘. फिलवक्त, दो सौ वर्षों से चले आ रहे इस कारोबार ने कहलगांव में कुटीर उद्योग का रूप ले लिया है. वैसे भागलपुरी जर्दालू आम, जगदीशपुर (भागलपुर) का कतरनी चूड़ा के स्वाद की भी चर्चा देश – विदेश में खूब है.

दो सौ वर्ष पूर्व मालदा से कहलगांव पहुंची यह कला :

इस कारोबार से सबसे पहले जुड़े कहलगांव निवासी स्व.सोहन साह. सोहन साह के बड़े पुत्र जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि दो सौ वर्ष पूर्व ही यह कारोबार यहां स्वरुप यानी रंग – रूप लेने लगा था. आज इस कारोबार में छठी पीढ़ी के लोग लगे हुए हैं.मेरे दादा जी स्व बैजू साह की बहन की शादी मालदा (पश्चिम बंगाल) में हुई थी.रसकदम नाम की मिठाई वहां बनती थी.वहां रसकदम का स्वरुप यानी रंग – रूप कुछ अलग था.मेरे दादा जी ही सर्वप्रथम इस मिठाई को एक नया लुक व स्वाद देकर कहलगांव की छोटी सी मंडी में उतारा. उक्त समय मिठाई की महज तीन दुकान ही कहलगांव में हुआ करती थी. हरि साह, आदित्य गुप्ता व सोहन साह की. लेकिन रसकदम का निर्माण सोहन साह की दुकान में अत्यधित होती थी. देखते-ही-देखते मिठाई के शौक़ीन ग्राहक इसके कायल हो गए. इसकी बनावट और स्वाद पर लट्टू हो गये और नगर से निकलते हुए महानगर को स्पर्श कर विदेशी जमीं पर भी अपनी गुणवत्ता,प्रसिद्धि व स्वाद का झंडा गाड दिया.उत्सव-महोत्सव में ‘रसकदम’ मेहमानों की पहली पसंद आज भी मानी जाती है. वैसे अब इस मिठाई का निर्माण बिहार के चप्पे चप्पे में हो रहा है लेकिन रसकदम के ऊपर पोस्ता चढ़ाने की कला से सभी अनभिज्ञ हैं. जिस कारण कहलगांव के रसकदम का खूबसूरती संग स्वाद का नकल किसी कारीगर से हो नहीं पा रहा है.

निर्माण की विधि :

वैसे, रसकदम यहां कई दुकानों में बनती है.परन्तु आज भी नगर की पुरानी दुकानों में ही रसकदम की बिक्री व विशेष आर्डर पड़ते हैं.जगन्नाथ गुप्ता बताते हैं कि रसकदम बनाना एक कला ही नहीं तपस्या भी है.इसके लिए अव्वल दर्जे का गाय दूध का खोआ चाहिए.उसपर लगाने के लिए उत्तम क्वालिटी के पोस्ता दाना का ‘चूरा’ चाहिए.एक निश्चित ताप पर ही पोस्ता को भुना जाता है.देश में कहलगांव ही एक ऐसी जगह है जहां रसकदम पर पोस्ता दाना चढ़ाने से पूर्व चीनी की चासनी चढ़ाई जाती है.यह पारम्पिक कला है.उसके बाद खोआ के बीच डालने के लिए ‘रसगुंडी’ अर्थात छोटे साईज का थोड़ा सख्त रसगुल्ला बनाते है.उसे अलग रख कर ठंडा किया जाता है.रसकदम बनाने में कम समय नहीं लगता है.फिलहाल कहलगांव में कई दुकानों में रसकदम का निर्माण होता है लेकिन उसकी गुणवत्ता में पुरानी पहचान नहीं है.शहर के स्टेशन चौंक स्थित स्व सोहन साह अर्थात जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता की दुकान का रसकदम काफी चर्चित है. स्वाद संग गुणवत्ता से परिपूर्ण उपलब्ध है.जिसे दूर – दूर तक उपहार स्वरूप शहरवासी ले जाया करते हैं.

गुणवत्ता प्रभावित हो रही :

जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता कहते हैं महंगाई की मार रसकदम को प्रभावित कर रही है.जगनाथ प्रसाद बताते हैं 1972 ई. में कहलगांव में रसकदम का भाव 8 रु. किलो था.1975 ई.में यह 16 रु. किलो बिकने लगा.रसकदम की प्रसिद्धि और भाव की बढ़ोत्तरी को देखते हुए भागलपुर के तत्कालीन जिला पधाधिकारी ने एक बैठक बुलाकर कहा था कि 11 रु. किलो इसे बेचना होगा. उक्त समय जिला पदाधिकारी की बात माननी पड़ी. बहरहाल,आज रसकदम लोकप्रिय दुकानों में छः सौ रु. प्रति किलो बिक रहा है.

सौगात में विदेश भी जाते रसकदम :

भारत में कोलकाता,बेंगलुरु,चेन्नई, मुम्बई,नई दिल्ली,सूरत,चंडीगढ़,गुवाहाटी में इसकी अत्यधिक मांग है.मित्र संग परिजन सौगात में बस रसकदम लेते आने की बात करते कभी नहीं भूलते हैं.विदेशों में भी इसकी खूब मांग है. विदेशों में रह रहे स्थानीय या आस पास के लोग जब भी अपने गांव आते हैं तो वे सौगात के रूप में रसकदम ले जाना नहीं भूलते हैं. यहां तक कि लोग अपने रिश्तेदारों के लिए रसकदम कोरियर से भी भेजते देखे गए हैं. वैसे टिकाऊ रसकदम का निर्माण की विधि कुछ अलग तरीके से होती है. अलग विधि के बाद भी उसके स्वाद में रत्ती भर का फर्क नहीं पड़ता है. रसकदम विदेश इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, सिंगापुर, पड़ोसी मुल्क नेपाल के अलावा मुस्लिम देश पाकिस्तान, बंगला देश, सऊदी अरब, कैरेबियन सागर में स्थित द्वीप देश जमैका में पोस्ताविहीन रसकदम के चाहने व खाने वाले हैं. मुस्लिम देशों में पोस्ता पर वैन है.

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